Tuesday, November 18, 2014

मैंने देखा है झारखंड को...

क्या कहूं..कैसे कहूं..किसके बारे में कहूं..कहां से शुरू करू..मैनें बहुत कुछ देखा..बहुत कुछ समझा..बहुत कुछ बिता हैं मुझ पर..फिर भी दिल आज कुछ कहना चाहता है..
मैने देखा है एक सपने को साकार करने के लिए मांओ के कोख को उजडते हुए..जिन बांकुरे कंधों पर घर के अरमानो को पूरा करने की जिद थी उन अरमानों को दिवारों में चुनते देखा है..वक्त बदला हालात बदले...फिर सिसकियों को शक्ति बनते देखा...अंगारों पर चलकर आसमान से फुल बरसते देखा है...मैनें देखा है बिहार से अलग हो कर झारखंड को बनते हुए..नन्हें से झारखंड को सुरज की सुनहरी रोशनी में नहाते हुए...चांद की ढंडी थपकियों के साथ कुम्लाहते हुए...धूप की तपिश को सखुए के पत्तों से पनाह मांगते देखा है...आसमान के तारों को झारखंड की सड़कों पर टिमटिमाते देखा है..खेत खलियानों में किसानों की बांछे खिलते देखा है..बाजारों में हरे-हरे नोटों को अठखेलियां करते हुए देखा है..
फिर न जाने किसकी लगी नज़र..

मैने देखा है 14 साल के झारखंड के रक्त-चरित्र को...सन्नाटे को चीरती गोलियों की गुंज हो या चिग्घाड़ काटती विधवाएं हो..मातम चारों ओर पसरते देखा है...लाल,पीली,हरी,नीली सलाम को क्रांति के नाम पर कोहराम मचाते देखा है...झारखंड के वीर सपुतों का इसी ज़मी पर चीथड़े उड़ते देखा है..खाकी हो या खादी दो शब्दों की मातमपुर्सी करते देखा है..फिर वही रात फिर वही रूदन चारों ओर घनघोर अंधेरा देखा है..मैने बीते 14 साल में गिरती-पड़ती सरकार बनते बिगड़ते देखा है...नोटों के बल पर खाकी को कुलांचे भरते देखा है..पार्टी हो या पंडित सबने यहां खेल घिनौना खेला है...मैने चारा से लेकर चावल तक को लुटते देखा है...हरयाली झारखंड को कोयले की कालिख से पुतते देखा है...हड़ताली चौंक से लेकर होटवार जेल तक खाकी का खेल अजूबा देखा है...सड़कों के गड्ड़ों से लेकर खादानों तक कफन में लिपटे लाशों को देखा है...आसमान के नीचे पढ़ने वाले नौनिहालों की तस्वीर से लेकर सड़कों पर भटकते युवाओं की तकदीर बिगड़ते देखा है...इन 14 सावन में खेतों को पानी की इक बुंद के लिए तरसते देखा है..गांव से लेकर शहर तक पेट की आग की खातिर दहलीज लांघ कर लोगों को जाते देखा है...न बिजली न पानी..न स्कुल न सड़क...मासुम से लेकर सिंदूर भरी मांग तक को दुस्साहसन के हाथों चीर हरण होते देखा है...सरेबाज़ार कुर्सी और कानुन के परखच्चे उड़ते देखा है...मैने देखा है इन 5 हजार 1 सौ 10 दिनों में 2 बार लोकतंत्र का पर्व, 9 मुख्यमंत्री, 3 बार राष्ट्रपति शासन, 16 मुख्य सचिव, 10 डीजीपी....मैनें देखा है इन 14 सालों में सवा 3 करोड़ झारखंडियों की आंखों में हर रोज़ टूटते बिखरते सपनों को...........बस....अब और नहीं देखा जाता.... 
लेकिन स्याह अंधेरी रातों के बाद भी इक नया सवेरा आता है..इक नया सवेरा आता है..